कहा जाता है कि जब भी कोई एक विचार प्रस्तुत किया जाता है तो उसके विरोध या सर्मथन के स्वर एक नए विचार को जन्म देते हैं , यह विचार उत्पन होने की किर्या और प्रितिक्रिया निरंतर चलती रहती है | समाज के सामूहिक जीवन के नियमो और उपनियमों कि उत्पति इसी निरंतर विचार प्रवाह की कोख से ही होती है | चूँकि ये विचार प्रवाह है अर्थात ये एक स्थिर पद नहीं है इसलिए हम ऐसा भी कह सकते हैं कि जो नियम और कानून आज हमें उचित, तर्कसंगत और न्यायसंगत प्रतीति होते हैं कालवश उन्ही नियमों में हमें संशोधनों कि आवश्यकता अनुभव होती है और हम उन की सार्थकता पर भी संदेह करने को विवश हो जाते हैं | इसका ज्वलंत उदहारण भारतीय संविधान है जिसमें पिछले ५० वर्षों में १०० से भी अधिक बार संशोधन किया गया है | ये अलग बात है कि भारितीय संविधान को लोकतान्त्रिक संविधानों में परिपूरण और अग्रन्यीय गिना जाता है |
देश में पिछले अप्रैल से रिश्वतखोरी और भ्रिष्ट आचरण के निवारण के लिए लोकपाल के लिए जन आन्दोलन चल रहा है और इसी आन्दोलन को ध्यान में रखते हुए शासक दल ने लोकपाल का एक प्रारूप बनाकर लोकसभा के द्वारा पारित कराकर राज्य सभा में भेजा है | कहने को हर राजनैतिक दल एक कठोर लोकपाल का पक्षधर नज़र आता है परन्तु फिर भी शासक दल में चिंता का वातावरण हैं कियुंकि राज्यसभा में शासक दल अल्पमत में हैं और यह संभव है कि राज्यसभा लोकपाल को उसी रूप में पारित न करे जिस रूप में लोकसभा पारित कर चुकी है | देखा जाये तो शासक दल की इस चिंता में लोकतंत्र के लिए घातक प्रिविती छुप्पी हुई है, कियुंकि यह चिंता दर्शाती है कि वर्तमान में हमारे देश में कानूनी प्रारूप भी अपनी उपयोगिता और गुणवत्ता के आधार पर नहीं पर संख्या बल के आधार पर पारित किये जाते हैं |
जन्हाँ तक मेरा समझना हैं कि हमारे संविधान निर्माताओं ने राज्यसभा और राज्यों में विधान परिषदों की स्थापना का प्रावधान इसीलिए किया था ताकि ये संस्थाएं निर्वाचित राजनेताओं पर अंकुश के रूप में कार्य कर सके | यदि हम आज का विचार करें तो हम पाते है कि ये संस्थाएं ऐसे राजनैतिक नेताओं का अड्डा बन गयी हैं जो या तो चुनाव जीतने में असमर्थ है या फिर ये नेताओं का अपनी अपनी पार्टी के लिए विशेष महत्त्व है | निश्चय है ये श्री अन्ना हजारे जी के नेत्रत्व में चले जन आन्दोलन की सफलता है कि आज देश का केवल बुद्धिजीवी वर्ग ही नहीं पर साथ ही साथ सामान्य नागरिक भी भारतीय संविधान को समझने के लिए प्रयत्नशील नज़र आ रहा है, विशेषकर युवा वर्ग तो संविधान संशोधन के बारे में भी विचार करने लगा है | जिस प्रकार से शासक दल लोकपाल के राज्यसभा में परिणाम के प्रति चिंतित है उसे देखते हुए यह कहा जा सकता है कि यही उचित समय है जब हम राज्यसभा और राज्यों की राज्य परिषदों को अपने विचार मंथन में स्थान दें जिससे लोकतंत्र के स्वस्थ रक्षा के उपाय समय रहते किये जा संके | इस सम्बन्ध में मेरे कुछ प्रस्ताव इस प्रकार है :
१] सभी राजनैतिक व्यक्तियों को राज्य सभा और राज्य परिषदों की सदस्यता के लिए अयोग्य घोषित कर देना चाहिए [अपवाद प्रस्ताव १३].
२] राज्यसभा और राज्य परिषदों को अपने अपने जनैतिक दलों, जो उन्हें मनोनीत करते हैं, के आदेशनुसार मतदान करने की विवशता से मुक्त कर देना चाहिए .
३] राज्यसभा और राज्य परिषदों के लिए व्यक्तिगत सदस्य समय सीमा को १० वर्षों तक सीमित कर देना चाहिए अर्थात किसी भी व्यक्ति को इन सदनों का सदस्य बनने के लिए दो से अधिक अवसर नहीं मिलना चाहिए |
४] राज्यसभा और राज्य परिषदों के सदस्यों को मंत्रिमंडल में सम्मिलित नहीं करना चाहिए |
५] किसीभी राज्य सभा अथवा राज्य परिषद् के सदस्य के लिए ये बंधन रहेगा कि सदस्यता समाप्ति के बाद आनेवाले १० वर्षों तक किसी भी राजनैतिक पार्टी से किसीभी रूप में जुड़ने पर प्रतिबन्ध होगा |
६] इसी प्रकार ये भी अनिवार्य कर देना चाहिए कि इन सदनों के सदस्यता के लिए किसीभी ऐसे व्यक्ति को मनोनीत नहीं किया जा सकता है जो उस दिनक विशेष से १० वर्ष पूर्व तक के काल में किसीभी प्रकार से किसीभी राजनीतक दल से जुड़ा हुआ है |
७] राज्यसभा और राज्य परिषदों में कुल सदस्य संख्या में न्यनतम १०% सदस्य संविधान विशेषज्ञ और १०% आर्थिक विशेषज्ञ होना अनिवार्य कर देना चाहिए |
८] युवा वर्ग और व्यापारी वर्ग को प्राय इन सदनों में सदस्यता नहीं मिलती है इसलिए ये सुनिशित करना चाहिए कि किसी भी सदन में व्यापारी वर्ग से ५% सदस्य तथा ५% सदस्य ४० वर्ष से कम आयु के हों |
९] राज्य सभा और राज्य परिषदों में राजनैतिक दलों को उनके लोकसभा और विधानसभा के लिए निर्वाचित सदस्य संख्या के आधार पर अपनी पसंद के सदस्य मनोनीत करने का अधिकार दे देना चाहिए अर्थात इन सदनों के लिए चुनाव नहीं होना चाहिए |
१०] राज्य सभा अथवा किसीभी राज्य परिषद् के लिए मनोनीत सदस्यों की संख्या लोकसभा अथवा उस राज्य की विधानसभा के लिए निर्वाचित सदस्य संख्या के पांचवें हिस्से से अधिक नहीं होना चाहिए |
११] राज्य सभा और राज्य परिषदों का कार्यकाल समबन्धित लोकसभा अथवा विधानसभा के कार्यकाल जितना होगा अर्थात यदि किसी कारण से लोकसभा अथवा विधानसभा का कार्यकाल समाप्त किया जाता है तो राज्य सभा अथवा राज्य परिषद् का कार्यकाल भी समाप्त माना जायेगा |
१२] राष्ट्रपति अथवा राज्यपाल को यह अधिकार होगा कि वे राज्य सभा अथवा राज्य परिषद् के संचालन के लिए ११ सदस्यीय संचालक मंडल नियुक्त करें |
१३] शासक दल और मुख्य विपक्षी दल को यह अधिकार होगा कि वे एकबार में अपने निर्वाचित सदस्य संख्या के २% जितने राजनीतिकों को भी राज्य सभा अथवा राज्य परिषद् के लिए मनोनीत कर सकती है |
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